शुक्रवार, 17 जुलाई 2009

लोकतंत्र और नक्सलवाद

लोकतंत्र और नक्सलवाद….
दो अलग और बहुत ही ज़्यादा जुदा लफ़्ज़...
लोकतंत्र, अभी हाल ही में चुनाव ख़त्म हुए है और नई सरकार बन गई है और सरकार ने अपने सौ दिनी एजेंडे पर काम करना शुरु कर दिया है...बहरहाल हम बात कर रहें है लोकतंत्र और नकस्लवाद पर...छत्तीसगढ़ के राजनांदगांव ज़िले में मानपुर से थोड़ी दूर मदनवाड़ा जहां नक्सलियों ने खेला ख़ूनी खेल...छत्तीसगढ़ में एक ही दिन में इतना बड़ा हमला हुआ कि छत्तीस जवान शहीद हो गए...और कुछ जवानो के लापता होने की बात भी कही जा रही है...सवाल ये है कि कब तक इस तरह से नक्सली हमले होते रहेंगे...कब तक हम यू हीं अपने जवानो की बलि चढ़ाते रहेंगे...कब तक नक्सलियों का ये तांडव जारी रहेगा...कब तक हम अपनी ज़िम्मेदारी से मुंह फेरते रहेंगे...कब तक मासूम जाने जाती रहेंगी...कब तक हम एक दूसरे पर आरोप लगाते रहेंगे...कब तक हम मासूमों कि मौत पर राजनीति करते रहेंगे...आख़िर कब तक....?
ये एक बहुत बड़ा सवाल है लेकिन इसका जवाब कौन देगा...और क्या इसका जवाब किसी के पास है...या ये सवाल भी और सवालों की तरह ही जवाब तलाशते हुए खुद कहीं खो जाएगा...
लेकिन उम्मीद क्योंकि उम्मीद पर ही दुनिया कायम है...यहां पर हम इसलिए कहा...क्योंकि मैं से मिलकर हम बना है और हमसे मिलकर समाज...कोई तो हो जो इस आवाज़ को बुलंद करे... कोई तो हो जो ऐसे राजनेताओं को ना चुने जो मासूमों की मौत पर...शहीदों की मौत पर राजनीति करते हों...जो ऐसे अफसरो को अपनी कुर्सी से उतार फेंके जो जवानो की जान से ज़्यादा साहित्य-सृजन और काव्य गोष्ठी को तरजीह दे...या फिर राज्य के उंचे पद पर आसीन उस व्यक्ति को सच्चाई का आईना दिखाए जो कि राज्य और केंद्र के बीच इस नक्सली समस्या को ज़्यादा संजीदगी से लेने की बात तो करते हों, आर-पार की लड़ाई लड़ने की बात भी करते हों लेकिन आरपार की लड़ाई कौन लड़ रहा है ये सबके सामने है...क्या इतनी बड़ी समस्या यूं ही बातों में, आरोपों में, राजनीति में, कोरे काग़जों को स्याही दिखाकर, बंद करवाकर, मौन रखकर, काव्य-गोष्ठी आयोजित करवाकर या बाकि के तमाम काम वो जो फालतू है, बेमानी है, या यूं कहें कि महज़ इन सबको ढ़कते है...ढ़कते नहीं बल्कि इस समस्या को पीठ दिखाते हैं...क्या इनसे क्या इन सब बातों को करके हम इस सबसे बड़ी समस्या से निजात पा सकते है...छुटकारा पा सकते हैं... नहीं कभी नहीं....
क्योंकि जब तक तक हम में से कोई आवाज़ नहीं उठाएगा...तब तक शायद ही कुछ हो...तब शायद इन सब सवालों का जवाब हमारे पास हो...तब हम ये कह सके हां हम ही है...हम ही हैं जो लोकतंत्र के रक्षक है, हम ही हैं जो लोकतंत्र को जिंदा किए हुए हैं, हम ही हैं जो अच्छे और बुरे में फर्क समझते हैं, हम इस दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र का अंग है इसका हिस्सा है...हां हम लोकतंत्र की आवाज़ है...

6 टिप्‍पणियां:

  1. क्या बात है मकसूद साहब, आप भी आ गए ब्लॉग जगत में।
    शुभकामनाओं के साथ स्वागत है हिंदी ब्लॉग जगत पर।

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  2. अगर नहीं जागे तो नेपाल जैसा हाल होगा

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  3. मक़सूद भाई अभी तो हमें सही तरीके से, या यूं कहें कि प्रश्न तक करना ही नहीं आया।
    हमारे हर जुमले की तरह हमारे प्रश्न भी अभी उधार के हैं।

    जाहिर है जबाब तो बहुत दूर की कौडी़ है।

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  4. सवाल वाजिब है, सवाल बड़ा भी है...और पोस्ट इसलिए और भी ज्यादा दिलचस्प है क्योकिं सवाल उठाती है....दरअसल हमारी हार वहीं से शुरू हो जाती है जब सवाल खड़े करना बंद कर देते है....अब बात मुद्दे की...नक्सलवाद जो घिनौना रूप ले चुका है वो किसी भी मायने में सही नहीं....लेकिन इस मामले के तह तक जाए तो सवाल फिर वहीं...असमानता...भेदभाव...अविकास...अशिक्षा...असुरक्षा...खैर...सवाल उठाने के लिए बधाई हो....लकिने जवाब तलाशना भी जरूरी है...और हां किसी भी काम की शुरूआत ख़ुद से ही की जा सकती....ब्लाग शानदार है लिखते रहिए......

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  5. मेरे पुराने ब्लाग का एड्रेस http://aarambh-aarambh.blogspot.com/ है..जिस पर मैने कुछ कविताऐं लिखी....काफी दिनों से लिखना बंद है....फिर शुरू करने वाली हूं...एक नये ब्लाग एड्रेस के साथ....शुरू करते ही url भेज दूंगी..

    rgds..
    अपर्णा

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  6. बहुत सुंदर…..आपके इस सुंदर से चिटठे के साथ आपका ब्‍लाग जगत में स्‍वागत है…..आशा है , आप अपनी प्रतिभा से हिन्‍दी चिटठा जगत को समृद्ध करने और हिन्‍दी पाठको को ज्ञान बांटने के साथ साथ खुद भी सफलता प्राप्‍त करेंगे …..हमारी शुभकामनाएं आपके साथ हैं।

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