सोमवार, 6 सितंबर 2010

मेरी आवाज़ ’इंक़लाब’


बग़ावत का झंडा बुलंद कर, आवाज़ अपनी उठा

कर अपना सर ऊंचा, एक चीख़ ऐसी लगा

हिल जाएं हुकूमत की जड़ें, आंधियां भी चल पड़ें

तू भूखा रह और भूखा ही आगे बढ़

कुछ खाया तूने तो तुझे नींद आ जाएगी

और आंखें बंद की तो आवाज़ भी खो जाएगी

जागना है तुझको, औरों को भी जगाना है

शायद इस बार इंक़लाब तुझे ही लाना है

ज़िंदाबाद, ज़िंदाबाद के नारे बहुत लगा लिए तूने

अब तुझे कुछ कर दिखाना होगा

ना उम्मीदी के सूरज को डुबाकर

उम्मीद की किरण को लाना होगा

तुझे चलना है उस पश्चिम की तरफ

जहां डूबी हुई उम्मीदें हैं...........

तुझे भी डूबना होगा इन्हीं उम्मीदों के लिए

एक नए कल के लिए...

सूरज फिर से निकलेगा, पंछी फिर से गाएंगे

एक नया घर, गांव, प्रदेश, एक नया देश हम बसाएंगे

वो देश जहां खुशहाली हो, हरियाली हो

वो देश जहां हर कंधे पर जिम्मेदारी हो...

आओ मिलकर फिर से एक सवेरा लाएं...

दर्द, भूख, बीमारी, गरीबी हर अंधकार को दूर भगाएं...

आओ मिलकर हम अपनी आवाज़ उठाएं...

गुरुवार, 15 जुलाई 2010

रिश्ते...


रिश्ते... कुछ रिश्ते हमें विरासत में मिलते हैं... और कुछ हमें किस्मत से... वो किस्मत जो हम बहुत ज़्यादा तपस्या या इबादत के बाद हमें ईनाम में मिली होती है... उसकी तरफ़ से जिसने हमें पैदा किया... एक बहुत सी नाज़ुक सी डोर से बंधे हुए होते है रिश्ते ज़रा सा हवा का तेज़ झोंका आया और टूटने का डर... ज़रा सा बोझ पड़ा इन पर और ये सहन नहीं कर पाते... लेकिन जितने नाजुक होते हैं रिश्ते उतने ही मज़बूत भी होते हैं... तब जब हम एक-दूसरे पर भरोसा करें... रिश्ते कभी बोझ नहीं होते... उन्हें जिया जाता है ज़िंदगी की तरह, वो सांस लेते हैं, वो महकते हैं, वो चलते हैं ताउम्र साथ-साथ क़दम से क़दम मिलाकर, अगर रिश्ते बोझ बनने लगे तो उन्हें तोड़ देना चाहिए... लेकिन क्या रिश्ते कभी टूटते हैं... शायद हां और शायद नहीं भी, हां इसलिए कि जिस तरह शीशा टूटता है उसी तरह रिश्ते भी टूटते हैं और अगर नहीं तो फिर शीशे के जुड़ने पर भी इसके टूटने के निशां क्यों मौजूद होते हैं... जो टूट गया शायद वो कभी जुड़ भी जाए... लेकिन जो छूटकर बिखर गया हो उसका क्या...? उसे तो सिर्फ समेटा ही जा सकता है और शायद मैं भी कुछ समेटने की कोशिश कर रहा हूं... रिश्ते बनाना बहुत आसान होता है और निभाना उतना ही मुश्किल, बहुत पहले सुना था लेकिन वाकई सच्चाई भी यही है, अगर रिश्ता है तो भरोसा बहुत ज़रूरी है, रिश्ता दो लोगों के बीच मोहब्बत और नफरत का होता है या फिर रिश्ता नहीं है तो वो अजनबी ही होते हैं... लेकिन अजनबी कौन हैं... ये एक बड़ा सवाल है...? जिसके जवाब का मुझे इंतज़ार है...

मंगलवार, 6 अप्रैल 2010

आख़िर कब तक...?

6 अप्रैल 2010... वो तारीख़ जो शायद कुछ लोग भूल जाएंगे... क्योंकि उन्होनें अपनों को सिर्फ नाम के लिए खोया है... उन्हें गिनती आती है... वो फिर से गिनती करेंगे... और कहेंगे 76 जवान शहीद हो गए... हमें दुख है, अफसोस है... और कुछ कभी नहीं भूल पाएंगे... इसलिए... क्योंकि एक बार फिर किसी का भाई... किसी का बेटा... किसी का सुहाग... और किसी के सर से साया छिन गया है... ‘छत्तीसगढ़’ में अब तक का सबसे बड़ा नक्सली हमला हुआ है... जिसमें इतने जवान शहीद हुए हैं... कुछ ने हमले की निंदा कि... नक्सलियों की कायरता करार दिया... तो किसी ने इस मामले में राजनीति कि... कहा कि राज्य सरकार नैतिक ज़िम्मेदारी ले और कुर्सी छोड़ दे... सवाल ये है कि क्या कोई इस हमले कि नैतिक ज़िम्मेदारी लेगा...? जिनकी ज़िम्मेदारी है... वो सिर्फ बयान देंगे... आपात बैठक लेंगे... रणनीति पर चर्चा करेंगे... अफसोस ज़ाहिर करेंगे... बड़ी चूक हुई है... ये भी मानेंगे... कहां चूक हुई है... इस पर समीक्षा करेंगे... और फिर से ये सारी बैठक... महज़ चिंतन पर ख़त्म हो जाएगी... कब तक...? आख़िर कब तक...? आर-पार की लड़ाई की बात कही जाएगी... क्या सिर्फ बैठकें ही होती रहेंगी या फिर कभी वो भी होगा... जिसकी कि अक्सर बात कही जाती है... क्या बातें कभी अमल में लाई जाएंगी...? क्यों बार-बार हमारी ही रणनीति नाकाम होती है...? क्यों बार-बार नक्सली कामयाब होते हैं... क्यों नक्सलियों के जाल में हमारे ही जवान उलझते हैं...? एक ही रणनीति नक्सली बार-बार अपनाते हैं... और उसी राह पर जवान भेज दिए जाते हैं... सिर्फ शहीद होने के लिए... इससे पहले भी इसी तरह के हमले हो चुके हैं... जिसमें नक्सली घात लगाकर बैठे थे... और 06 अप्रैल को भी यही हुआ... अगर ये केंद्र और राज्य का ज्वाइंट ऑपरेशन है... तब सीआरपीएफ के जवानों के साथ क्यों स्थानीय पुलिस फोर्स के जवान नहीं थे... अगर बाहर से आने वाले जवान जो कि चिंतलनार के भौगोलिक हालात से वाकिफ नहीं थे... क्यों उनके साथ किसी स्थानीय को नहीं भेजा गया...? हमेशा तालमेल बैठाने को लेकर ही बैठकें होती हैं... लेकिन तालमेल कहीं दिखाई नहीं देता... नक्सलवाद हमेशा से एक मुद्दा रहा है... जो देश के लिए इस वक्त सबसे बड़ा ख़तरा है... लेकिन राज्य और केंद्र की सरकारें हमेशा ही इससे बचती रही हैं... या भागती रही हैं... गृहमंत्री पी चिंदबरम की तारीफ करनी होगी... जिन्होने इसे ना सिर्फ गंभीर माना है बल्कि एक साहसिक क़दम उठाया है... लेकिन अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता... और शायद हमें भी इंतज़ार करना होगा... इंतज़ार... की इस बार सुबह गोलियों की आवाज़ों से ना हो... बल्कि चिड़िया की चहचहाहट से हो मुर्गे की बांग से हो... सूरज सुबह लालिमा लेकर ही आए... लेकिन वो रंग लालगढ़ के आतंक का ना हो... बल्कि एक ख़ुशनुमा सुबह हो...

गुरुवार, 25 फ़रवरी 2010

ड्रग्स... ड्रिंक और ड्रामा

राहुल महाजन नाम तो आपने सुना होगा... भाजपा के दिवंगत नेता प्रमोद महाजन की बिगड़ी हुई औलाद... आजकल एक टीवी प्रोग्राम में स्वंयवर रचा रहे हैं... क्या है ये राहुल महाजन... और कौन है...? ये किसी से छुपा नहीं है... एक अय्याश किस्म का रईसज़ादा... जिसने अपने पिता के पैसे पर ऐश किया है वो सब किया है जो एक बिगड़ा हुआ रईसज़ादा करता है... प्रमोद महाजन की मौत के बाद राहुल चर्चा में आया... विवादों में घिरा रहना पसंद है ड्रग्स लेने का संगीन इल्ज़ाम लगा... लेकिन इन सबके बीच कोई था जो साए की तरह साथ था... जी हां वो थी श्वेता... वही श्वेता जो कभी राहुल की दोस्त हुआ करती थी... उसके बाद पत्नी... और अब राहुल की तलाकशुदा... एक ज़िंदगी जिसे बरबाद किया राहुल महाजन ने... सबके सामने है और बाक़ी पर्दे के पीछे कितनी है कहा नहीं जा सकता... ख़ैर पर्दे पर एक ज़िंदगी बरबाद करना क्या कम था... जो बाकी की ज़िंदगियां ख़ुद ही राहुल के हाथों बरबाद होने के लिए आ गई... जी हां मैं उन्हीं लड़कियों की बात कर रहा हूं जो एक टीवी शो में राहुल से शादी करने के लिए आई हैं... आख़िर क्या पसंद आया इन्हें इस राहुल महाजन में, समझ से परे है... उसका ड्रग्स लेना... ड्रिंक करना... उसका एक हंसती खेलती ज़िंदगी को उजाड़ना... या फिर ड्रग्स और ड्रिंक लेने वाले को लेकर, छोटे पर्दे पर जो ड्रामा चलाया जा रहा है उस ड्रामे का हिस्सा बनकर सस्ती लोकप्रियता बटोरना... सवाल ये है कि प्रोड्यूसर-डायरेक्टर को राहुल महाजन कोई और अच्छा नहीं मिला या फिर सिर्फ राहुल महाजन ही मिला... ख़ैर कुछ हो ना हो टीवी चैनल को टीआरपी बटोरने का धंधा तो आता ही है... पहले राखी सावंत के स्वयंवर के नाम से सगाई कर दी... और दर्शकों को ठग्गू के लड्डू खिला दिए... अब राहुल महाजन की शादी... जो भी हो... लेकिन सच ही तो है... जो दिखता है वो बिकता है...!

मंगलवार, 23 फ़रवरी 2010

दुलार मिलेगा या मार ?

जिस तरफ जाओ महंगाई को लेकर हाय तौबा मची हुई है और लोगों की नज़रें अब वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी पर टिकी हैं जैसे कि वो कोई चमत्कार करने वाले हैं... उम्मीदें बहुत सी हैं हर बार की तरह... लेकिन एक बात तो साफ है कि आने वाला बजट लोक लुभावन शायद ही हो... क्योंकि सामने चुनाव नहीं है पिछली बार की तरह... करोड़ों लोगों की अरबों उम्मीदें... क्या वित्त मंत्री खरा उतर पाएंगे इन उम्मीदों पर...? गांव, ग़रीब, किसान, व्यापारी, बिज़नेस घराने, युवा, महिलाएं, बच्चे, बूढ़े, यानि की हर वर्ग जो सरकार की नज़रों में इसानी श्रेणी में आते हैं वो भी और जो सरकार की नज़र में इंसान नहीं हैं वो भी... सभी की उम्मीद टिकी है इस बजट पर... कैसा होगा बजट...? हर टीवी चैनल की एक हेडलाईन और आधा दिन बजट में क्या होगा ? क्या उम्मीदें है हर वर्ग की... इसी में लगा है... प्रिंट मीडिया हो या इलेक्ट्रॉनिक मीडिया... हर जगह एक ही चर्चा, चाय की दुकान हो या गांव की चौपाल... सब्ज़ी मंडी हो या 5 स्टार होटल, कॉलेज हो या शराब खाने, सबको इस बात की फिक्र है कि क्या तोहफ़ा मिलने वाला है।
उम्रे दराज़ मांग कर लाए थे चार दिन, दो आरज़ू में कट गए दो इंतज़ार में, रातों की नींद तक गवां रखी है सबने सिर्फ इस फिक्र में की क्या होगा प्रणब दा के पिटारे में, क्या होगा ? अजीब सवाल है, पुरानी बोतल में नई शराब परोसी जाएगी या सिर्फ ख़ाली बोतल सामने रख दी जाएगी, मंदी को पूरी तरह से ख़त्म करने के लिए कौन सा बड़ा हिम्मत वाला क़दम उठाया जाएगा...? नई नौकरियां कैसे पैदा होंगी...? पढ़े-लिखे और अनपढ़ बेरोज़गारों के लिए क्या कोई काम निकलेगा ? आम आदमी का हाथ थामकर आगे बढ़ने वाली कांग्रेस आम आदमी को इस महंगाई से अपना हाथ पकड़कर बाहर निकालेगी, मंदी का डटकर मुकाबला करने के लिए पीठ थपथपाएगी, बच्चों को प्यार से सहलाएगी या फिर एक कसकर थप्पड़ मारेगी ? क्या होगा मुझे भी इंतज़ार है...

शनिवार, 13 फ़रवरी 2010

जनाब ये ‘सरकारी’ बंद है...

13 फरवरी 2010, दिन शनिवार... आज छत्तीसगढ़ बंद है... वजह महंगाई... बंद किया है भाजपा ने... क्यों...? महंगाई के लिए ज़िम्मेदार है केंद्र सरकार...। लेकिन सवाल ये हैं कि क्या सिर्फ केंद्र की ही ज़िम्मेदारी है... क्या इससे निपटने में राज्य की कोई भूमिका नहीं... अगर नहीं तो भाजपा बंद बुला सकती है... और अगर हां तो भाजपा को कोई हक़ नहीं बनता बंद बुलाने का... तब जबकि वो ख़ुद राज्य में शासन कर रही है... छत्तीसगढ़ में चलता है रमन का राज... वो इसलिए क्योंकि मुख्यमंत्री ने पुलिस और प्रशासन को अपनी जेब में रखा हुआ है और रही बात पत्रकारों की तो मुख्यमंत्री ने उनका मुंह ‘हवाले’ से बंद कर रखा है... ख़ैर ये तो बात हुई तानाशाही की... मुख्यमंत्री ख़ुद कहते हैं कि सगंठन का बंद है और सफलता मिलेगी... ज़ाहिर सी बात है जब मुख्यमंत्री ख़ुद मीडिया के सामने बंद होने से पहले ही बंद के सफल होने की बात करते हैं तो बंद सफल क्यों नहीं होगा... सवाल है, क्या किसी मुंख्यमंत्री को बंद का समर्थन करना चाहिए...? अगर बंद होता है तो प्रशासन और पुलिस उसे सुरक्षा मुहैया कराते हैं जो बंद का समर्थन ना करते हुए अपना प्रतिष्ठान खोलना चाहते हैं... लेकिन पुलिस और प्रशासन तो मुख्यमंत्री की जेब में है... लिहाज़ा शटर खोलेगा कौन...? एक तरफ़ आम आदमी महंगाई से परेशान है दूसरी तरफ इस बंद ने ग़रीबों की रोटी भी छीन ली... जब काम ही नहीं होगा तो ग़रीब का पेट कैसे भरेगा... बसें बंद हैं... स्कूल बंद हैं... कॉलेज बंद हैं... इसलिए लोग परेशान होते रहें... कोई फर्क नहीं पड़ता... क्या बंद करने से महंगाई का शटर गिर जाएगा... ख़ैर महंगाई कम हो ना हो लेकिन बंद तो होगा... भाई ‘सरकारी’ बंद है...

गुरुवार, 11 फ़रवरी 2010

यहां सपने देखना गुनाह है ?

आख़िरकार... वही हुआ जिसका अंदेशा था... मुंबई में जो जंग चल रही है वो जगज़ाहिर है... और इसका फ़ौरी नतीजा निकल आया है मुंबई में फिल्म रिलीज़ नहीं हो रही है... वही मुंबई जहां फिल्में बनती है... जहां से सपना और सफ़र शुरु होता है... जहां हर रात कोई सितारा जगमगाता है, तो कोई सितारा टूट जाता है... कोई सितारा गर्दिश में रहता है तो कोई आसमान में उतनी ही ख़ूबसूरती और रौशनी के साथ चमकता है... ये मुंबई शहर है सपनों का... अपनों का... सितारों से सजी मायानगरी... लेकिन ये बात लगता है कि अब पुरानी और बेमानी हो चली है... ताज़ा हालात को मद्देनज़र रख तो यही कहा जा सकता है... कि ये मायानगरी नहीं गुंडों की नगरी है... यहां सितारो की झिलमिलाहट नहीं यहां तो अंधेरा बसता हैं... यहां सपने तो हैं... लेकिन अपने नहीं... यहां तो वो हैं जो सपनों को तोड़ते हैं... और सवाल अगर अपनो का हो तो अपनों के लिए यहां कोई जगह नहीं है... यहां अपना है कौन ? यहां तो मराठी मानुष हैं, यहां उत्तर भारतीय हैं, यहां शिवसेना है, यहां मनसे है, यहां राजनीतिक पार्टियां हैं... लेकिन यहां कोई अपना नहीं है... वो कहते हैं ना कि दीया तले अंधेरा... यहां भी वही हाल है जितनी चकाचौंध मुंबई में है... उतनी शायद ही देश के किसी कोने में हो...? लेकिन ये भी एक सच्चाई है भले ही कड़वी सही लेकिन यहां अंधेरा भी बहुत है... और उन अंधेरो में इंसान नहीं हैवान बसते है... क्योंकि हैवान ही किसी के सपनों को तोड़ सकता है... इंसान नहीं... अगर माइ नेम इज़ ख़ान औरों की तरह एक सपना है तो क्या सपनों का यही अंजाम होता है...? क्या किसी को सपना देखने का हक़ नहीं...? क्या मुंबई में सपना देखना गुनाह है...? क्या यही है सपनों की नगरी...? क्या यही है मायानगरी...?