गुरुवार, 29 अक्तूबर 2009

क्या लिखूं...?

बहुत दिन हो गए कुछ लिखे हुए... आज सोचा कि लिख लिया जाए... लिखने के लिए वैसे तो मूड की ज़रूरत होती है लेकिन वो मूड कई दिन हो गए बन नहीं रहा था... फिर सोचा कि जो भी मन में आए लिख दो... शायद इसी से लिखना सीख जाऊं... क्यूं है ना... ख़ैर आपको इस बीच जितने भी हमारे ख़ास त्योहार गुज़रे उनकी तहेदिल से मुबारकबाद...शुभकामनाएं...
हम लिखने पर थे कि क्या लिखूं... हम हर वक्त हमारे आस-पास बहुत कुछ होते हुए देखते सुनते और पढ़ते हैं... आज तो इतने सारे न्यूज़ चैनल हो चुके हैं कि जब भी टीवी ऑन करो हर चैनल पर अपना अलग मसाला अलग ख़बर चलती दिखाई दे रही है... क्या हम उन ख़बरों के बारे में बातचीत करें... क्या हम ये बात करें कि प्रधानमंत्री ने जम्मू-कश्मीर में नई रेल लाइन का उद्घाटन किया... और वहीं से पाकिस्तान और अलगाववादियों को हर मुद्दे पर बातचीत के लिए कह भी दिया... क्या हम ये बात करे कि राजधानी एक्सप्रेस जिसे माओवादियों(नक्सलियों) ने रोका था वो आख़िरकार दिल्ली पहुंच गई है... क्या कहूं कि जो पाकिस्तान आतंकियों को पनाह दे रहा था जो उन्हें दूसरों को कमज़ोर करने के लिए पैदा कर रहा था और पाल रहा था वही आज उनका शिकार हो रहा है... वहां रोज़ ही धमाके हो रहे हैं...जिसमें बेगुनाह और मासूम मारे जा रहे हैं... क्या लिखूं कि सेंसेक्स जो 17 हज़ार से उपर था अब 16 हज़ार के नीचे कारोबार रहा है.... क्या हम ये बात करे कि जो नई क्रेडिट पॉलिसी का एलान हुआ है उसे वित्त मंत्री ने अच्छा कहा है... क्या हम टीम इंडिया की जीत की बात करें... क्या हम सलमान-शाहरुख़ के अलग-अलग रैंप पर उतरने की बात करे... आख़िर हम क्या बात करें... आख़िर हम क्या लिखें... लेकिन सवाल यहीं ख़त्म नहीं होता... क्यूंकि लिखना तो है... लेकिन क्या लिखूं.... ये एक बड़ा सवाल है.... और इस सवाल का जवाब मुझे आपसे चाहिए... उम्मीद पर दुनिया क़ायम है और इसी उम्मीद के साथ कि आप मेरी मदद करेंगे मुझे रास्ता दिखाएंगे फिलहाल आपसे इजाज़त चाहता हूं...

शनिवार, 1 अगस्त 2009

हंगामा क्यूं है बरपा...?

काश्मीर से लेकर कन्या कुमारी तक भारत एक है...अब तक क़िताबों में यही पढ़ा है और यही पढ़कर हम सब बड़े हुए है लेकिन आज जो हम देख रहें है वो ये साबित भी करता है कि हां वाक़ई में हम एक है लेकिन हम अपनी एकता को जिस रुप में देख रहें हैं क्या वो रुप वाक़ई में हिंदुस्तान का रुप है क्या ये हमारा मुल्क है क्या हम ये हैं... आप सोच रहे होंगे कि मैं कहना क्या चाहता हूं...दरअसल मैं बात कर रहा हूं हिंदुस्तान की उस आवाज़ की जो हमारी आवाज़ बनकर कभी विधानसभा...तो कभी लोकसभा में सुनाई देती है...हां हिंदुस्तान की आवाज़...
लेकिन जो कुछ भी हो रहा है उसे आप भी जानते हैं क्यूंकि ख़बरें आप भी देखते हैं और अगले दिन न्यूज़ पेपर में पढ़ते भी हैं...पहले बात करते हैं विधानसभा की...शुरुआत वहीं से जहां हिंदुस्तान शुरु होता है जम्मू-कश्मीर विधानसभा में जो हंगामा इस वक्त बरपा हुआ है आख़िर वो सब क्यूं है... शोपियां बलात्कार और हत्या मामले को लेकर पीडीपी की अध्यक्ष महबूबा मुफ़्ती विधानसभा अध्यक्ष की आसंदी तक पहुंच गई एक माइक उन्होने उठाकर फेंक दिया और दूसरा माईक भी उखाड़ने की कोशिश की लेकिन वो उनसे उखड़ नहीं पाया...अगले दिन फिर हंगामा हुआ और 2006 का सेक्स स्कैंडल का मामला गूंजा...इस बार निशाने पर आ गए मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला और वो अकेले नहीं बल्कि मुज़फ़्फर हुसैन बैग ने उनके वालिद और पूर्व मुख्यमंत्री फारूख़ अब्दुल्ला को नहीं बख़्शा और सेक्स स्कैंडल में दोनो का नाम घसीट दिया...बस फिर क्या था मुख्यमंत्री को ग़ुस्सा आ गया और उन्होने इस्तीफ़े का एलान कर दिया...और उस एलान के बाद विधानसभा में जो नज़ारा देखने को मिला क्या ऐसी होती है विधानसभा... और ये सियासी हंगामा अगले दिन भी चला बहरहाल मुख्यमंत्री अपना कार्य संभाल चुके हैं...
सवाल ये है कि आखिर हमारे सियासतदां चाहते क्या है और ये सब करके वो क्या बताना चाहते हैं हमें, क्यूंकि हमने ही उन्हें चुनकर वहां भेजा है...ये नज़ारा सिर्फ कश्मीर का ही नहीं है उत्तरप्रदेश में तो कईं सालो पहले विधानसभा में जो हुआ उसे कहने के लिए तो लफ़्ज़ भी नहीं मिल रहे कि किस तरह से जनप्रतिनिधि वहां एक-दूसरे के ख़ून के प्यासे हो गए थे...और आज भी वहां नज़ारा कुछ अलग नहीं है....बिहार हो...मध्यप्रदेश...छत्तीसगढ़...उड़ीसा...झारखंड या फिर देश की कोई भी विधानसभा नज़ारा यही देखने को मिलेगा...विधानसभा क्या लोकसभा में भी यही सब कुछ दिख रहा है...और दिखे भी क्यों ना क्यूंकि हमारे देश के हर हिस्से से हमने चुनकर एक सांसद लेकसभा में भेजा है जो संसद में मौजूद है इसलिए कि हमारी समस्या हमारी आवाज़ को वो उस जगह पहुंचा सके...लेकिन संसद में जो कुछ हो रहा है वो किसी से छिपा नहीं है... वहां भी हंगामा ही हो रहा है...कभी किसी मुद्दे पर तो कभी किसी मुद्दे पर...लेकिन ये हंगामा क्यों बरपा हुआ है...
जहां भी जाओ जिधर भी देखो सिर्फ और सिर्फ हंगामा...सवाल ये है कि, क्या इसिलिए इन्हें हम चुनते है...? क्या यही सब हम देखना चाहते हैं...? क्या इसी तरह से ये हमारी परेशानी को ख़त्म कर देंगे...? क्या विपक्ष सिर्फ विरोध करने के लिए विरोध कर रहा है...? और अगर हां तो ये कब तक चलता रहेगा...? क्या सिर्फ हंगामा खड़ा करने से तस्वीर बदल जाएगी...? या इनमें से कोई है जो ये सूरत बदलेगा...

शुक्रवार, 24 जुलाई 2009

कब मिलेगा सम्मान...?

कब मिलेगा सम्मान...
एक बार फिर से हुआ है हॉकी का अपमान...ताक पर रखा गया खिलाड़ियों का सम्मान...लुट गया खिलाडियों का स्वाभिमान...आख़िर कब तक होता रहेगा खिलाड़ियों का अपमान...कब तक लुटती रहेगी यूं ही चैंपियन्स की शान...और कब लौटेगा खिलाड़ियों का सम्मान..ये कुछ ऐसे सवाल हैं जिनके जवाब का इंतज़ार हम सभी कर रहे है ख़ासकर वो जिन्हे अपने देश से अपने राष्ट्र से प्यार है...हम बात कर रहें है भारतीय हॉकी खिलाड़ियों के साथ बार बार हो रहे अपमान की... हॉकी टीम के साथ इन दिनो जो घट रहा है उसे किसी भी लिहाज़ से सही नहीं कहा जा सकता, चाहे वो पुरुष हॉकी खिलाड़ी हो या फिर महिला....देश के राष्ट्रीय खेल और खिलाड़ियों के साथ जो कुछ भी हो रहा है उसे क्या समझा जाए, ये आज की बात नहीं है कि हॉकी खिलाड़ियों के साथ इस तरह का बर्ताव किया जा रहा है आखिर कब मिलेगा सम्मान...? कब तक अपमान का घूंट पाकर ताज जीतते रहेंगे खिलाड़ी...आज हर हॉकी खिलाड़ी यही सवाल पूछ रहा है...महिला हॉकी टीम के साथ कुछ दिन पहले जो कुछ हुआ उसे सभी ने देखा और अब ऐसा ही वाकया हुआ है भारतीय पुरुष हॉकी टीम के साथ... यूरोप टूर के लिए अभ्यास में जुटी भारतीय हॉकी टीम को देश से रवाना होना था जिसके लिए उन्हे पुणे से दिल्ली जाना था लेकिन खिलाड़ियों को लाने के लिए बस ही नहीं पहुंची...
सबसे बड़ा सवाल आखिर कब मिलेगा सम्मान भारतीय हॉकी को और हॉकी खिलाड़ियों को...कभी भारतीय महिला हॉकी टीम के पास ट्रांजिट वीज़ा नहीं होता, और उन्हें एयरपोर्ट से वापस लौटना पड़ता है...जब उनसे बात होती है तब खिलाड़ी ये कहते है कि इससे हमारे मनोबल पर कोई फर्क़ नहीं पडेगा...और हमारी खिलाड़ी वाक़ई में क़ाबिले तारीफ़ है रशिया में जाकर चैंपियंस चैलेंज ट्रॉफी जीतकर लौटती है... लेकिन अफसोस है कि जब वो जीतकर वापस लौटती हैं तब उन्हें कोई लेने नहीं जाता...और सभी खिलाड़ी टैक्सी और ऑटो करके ख़ुद ही रवाना होती है...और एक बार फिर वही हुआ...अपमान, लगातार या बार-बार जो कुछ हॉकी खिलाड़ियों के साथ बर्ताव किया जा रहा है...अब ऐसे में ये उम्मीद कैसे लगाई जाए कि भारतीय हॉकी पुराने रुतबे को हासिल कर लेगी...
आखिर अपमान की ये आंधी कब तक चलती रहेगी और ऐसा कब तक होता रहेगा, क्या कोई है जो हॉकी को इंसाफ दिलाने के लिएआवाज़ उठाए, हॉकी का ये हश्र और क्रिकेट पर पैसे की बरसात, दो खेल जिन्हें खेलते तो खिलाड़ी ही है लेकिन इन खिलाड़ियों की तक़दीर बिल्कुल अलग है जो क्रिकेट खेलते हैं उन्हें मिलती है इज़्ज़त...दौलत...शोहरत और जो हॉकी खेलते हैं उन्हें मिलती है ज़िल्लत...मुफ़लिसी... और अपमान....आखिर कब मिलेगा इन खिलाड़ियों को सम्मान...लेकिन उम्मीद यही है कि ये सब कुछ होने पर खिलाड़ियों के मनोबल पर कोई फर्क ना पड़े...जैसा प्रदर्शन महिला टीम ने किया था वैसा ही प्रदर्शन पुरुष टीम भी करे...यही दुआ है...
सिर्फ हॉकी ही नहीं बल्कि दूसरे खेल के खिलाड़ी भी इसी तरह की ज़िल्लत उठाने को मजबूर है सुशील कुमार का नाम आपको याद होगा जिन्होने ओलंपिक में देश के लिए कांस्य पदक जीता था, कुछ दिनो पहले जब वो जर्मनी से कुश्ती ग्रांपी में स्वर्ण पदक जीतकर लौटे तब होना ये था कि कोई अधिकारी उन्हें लेने जाते लेकिन किस्मत देखिए यहां भी एयरपोर्ट कोई नहीं गया और वो ख़ुद ही घर की तरफ़ चल दिए...रेणु गोरा का मामला हाल फिलहाल मीडिया में नया है बॉक्सिंग फेडरेशन ने जांच की बात कही है लेकिन जांच होती है या नहीं और अगर होती है तब किस तरह की कार्रवाई होती है येदेखना होगा...बहरहाल एक बार फिर खिलाड़ियों का अपमान होने पर सवाल उठने लगे है सवाल उठने लगे है अधिकारियों पर... सवाल उठने लगे हैं कार्यप्रणाली पर...सवाल ये भी है कि जिस खेल को सरकार ना पैसा दे पा रही है और ना सुविधाएं और ना कप जीतकर लौटने पर उनका स्वागत कर पा रही है, ऐसे में क्या उम्मीद की जाए...क्या राष्ट्रीय खेल का अपमान देश का अपमान नहीं है...? जो अंधेरा इस वक्त हॉकी पर छा रहा है...जो ग्रहण लगा है उस अंधेरे... उस स्याह रात की सुबह कभी होगी....?

शुक्रवार, 17 जुलाई 2009

लोकतंत्र और नक्सलवाद

लोकतंत्र और नक्सलवाद….
दो अलग और बहुत ही ज़्यादा जुदा लफ़्ज़...
लोकतंत्र, अभी हाल ही में चुनाव ख़त्म हुए है और नई सरकार बन गई है और सरकार ने अपने सौ दिनी एजेंडे पर काम करना शुरु कर दिया है...बहरहाल हम बात कर रहें है लोकतंत्र और नकस्लवाद पर...छत्तीसगढ़ के राजनांदगांव ज़िले में मानपुर से थोड़ी दूर मदनवाड़ा जहां नक्सलियों ने खेला ख़ूनी खेल...छत्तीसगढ़ में एक ही दिन में इतना बड़ा हमला हुआ कि छत्तीस जवान शहीद हो गए...और कुछ जवानो के लापता होने की बात भी कही जा रही है...सवाल ये है कि कब तक इस तरह से नक्सली हमले होते रहेंगे...कब तक हम यू हीं अपने जवानो की बलि चढ़ाते रहेंगे...कब तक नक्सलियों का ये तांडव जारी रहेगा...कब तक हम अपनी ज़िम्मेदारी से मुंह फेरते रहेंगे...कब तक मासूम जाने जाती रहेंगी...कब तक हम एक दूसरे पर आरोप लगाते रहेंगे...कब तक हम मासूमों कि मौत पर राजनीति करते रहेंगे...आख़िर कब तक....?
ये एक बहुत बड़ा सवाल है लेकिन इसका जवाब कौन देगा...और क्या इसका जवाब किसी के पास है...या ये सवाल भी और सवालों की तरह ही जवाब तलाशते हुए खुद कहीं खो जाएगा...
लेकिन उम्मीद क्योंकि उम्मीद पर ही दुनिया कायम है...यहां पर हम इसलिए कहा...क्योंकि मैं से मिलकर हम बना है और हमसे मिलकर समाज...कोई तो हो जो इस आवाज़ को बुलंद करे... कोई तो हो जो ऐसे राजनेताओं को ना चुने जो मासूमों की मौत पर...शहीदों की मौत पर राजनीति करते हों...जो ऐसे अफसरो को अपनी कुर्सी से उतार फेंके जो जवानो की जान से ज़्यादा साहित्य-सृजन और काव्य गोष्ठी को तरजीह दे...या फिर राज्य के उंचे पद पर आसीन उस व्यक्ति को सच्चाई का आईना दिखाए जो कि राज्य और केंद्र के बीच इस नक्सली समस्या को ज़्यादा संजीदगी से लेने की बात तो करते हों, आर-पार की लड़ाई लड़ने की बात भी करते हों लेकिन आरपार की लड़ाई कौन लड़ रहा है ये सबके सामने है...क्या इतनी बड़ी समस्या यूं ही बातों में, आरोपों में, राजनीति में, कोरे काग़जों को स्याही दिखाकर, बंद करवाकर, मौन रखकर, काव्य-गोष्ठी आयोजित करवाकर या बाकि के तमाम काम वो जो फालतू है, बेमानी है, या यूं कहें कि महज़ इन सबको ढ़कते है...ढ़कते नहीं बल्कि इस समस्या को पीठ दिखाते हैं...क्या इनसे क्या इन सब बातों को करके हम इस सबसे बड़ी समस्या से निजात पा सकते है...छुटकारा पा सकते हैं... नहीं कभी नहीं....
क्योंकि जब तक तक हम में से कोई आवाज़ नहीं उठाएगा...तब तक शायद ही कुछ हो...तब शायद इन सब सवालों का जवाब हमारे पास हो...तब हम ये कह सके हां हम ही है...हम ही हैं जो लोकतंत्र के रक्षक है, हम ही हैं जो लोकतंत्र को जिंदा किए हुए हैं, हम ही हैं जो अच्छे और बुरे में फर्क समझते हैं, हम इस दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र का अंग है इसका हिस्सा है...हां हम लोकतंत्र की आवाज़ है...

रविवार, 5 जुलाई 2009

मनमोहन….. मंदी.....मंहगाई....

महासमर 2009 में जनता ने अपना फैसला सुनाया...नया जनादेश दिया गया यूपीए को...काग्रेस सबसे बड़ी पार्टी है...खैर नई संसद, नया चेहरा, या ये कह सकते है कि एक नई उम्मीद...डा. मनमोहन सिंह के शपथ लेने के साथ ही एक नया मिशन शुरु हो गया...मिशन मनमोहन...मंदी...मंहगाई, देखना ये होगा कि एक म बाकी के दो म पर भारी कैसे पड़ता है और उससे भी बड़ा सवाल ये कि कब....कब इस मंदी से निजात मिलती है....कब मंहगाई से छुटकारा मिलता है...मंदी के इस दौर में ये नहीं कह सकते कि भारत इससे अछूता है...फर्क हमारी अर्थव्यवस्था पर भी पड़ा है...ड़ा. मनमोहन सिंह को भारत में आर्थिक सुधारों का जनक कहा जाता है और इस वक्त केंद्र में सबसे बड़े शीर्ष पर अगर हिंदुस्तान के आर्थिक सुधारों के जनक है तो उनका साथ देने के लिए पी. चिदंबरम और मोंटेक सिंह अहलूवालिया के साथ सी रंगराजन... ये वो चेहरे हैं जिन पर पूरा देश इस वक्त टकटकी लगाए देख रहा है... इस नई सरकार के सामने इस वक्त सबसे बड़ी चुनौती है और इस चुनौती को अगर वो एक मिशन के रुप में लेती है....तो पहले सौ दिन में वो क्या कर पाएगी और किस तरह से वो अपनी रणनीति बनाएगी...ये देखने लायक होगा....बहरहाल एक और शख़्स जो पहले भी वित्तमंत्री की महत्वपूर्ण ज़िम्मेदारी निभा चुके है एक बार फिर संसद के पटल और एक अरब से ज़्यादा लोगों के सामने बजट पेश करेंगे...लेकिन इस बार पहले की तुलना में बहुत ज़्यादा फर्क होगा क्योंकि इस बार मंदी के हालात में जबकि मंहगाई दर निगेटिव में है बजट को पेश करना है...हर तबका, हर वर्ग, हर हिंदुस्तानी इस वक्त प्रणब दा की तरफ उम्मीद भरी नज़रों से देख रहा है उद्योगपति, व्यापारी, नौकरीपेशा, मज़दूर, किसान, उच्च वर्ग, मध्यम वर्ग या फिर ग़रीब... उम्मीद एक ऐसा शब्द जो सभी को कहीं ना कहीं किसी ना किसी से होती है और कहते हैं कि उम्मीद पर दुनिया क़ायम है अब जबकि नई सरकार का पहला आम बजट आने वाला है तो उम्मीद यही है कि सभी की उम्मीद पूरी हो, हर वर्ग को कुछ नहीं बहुत कुछ मिले और इस उम्मीद का इंतज़ार ना जाने कब ख़त्म होगा

शुक्रवार, 3 जुलाई 2009

ममता बनर्जी ने आख़िरकार रेल बजट पेश कर दिया... उम्मीदों की रेल, दीदी का बजट, ममता की छुकछुक, दीदी की रेल और ना जाने क्या-क्या नाम से सभी ने सभी यानि की मीडिया चाहे वो प्रिंट से हो या इलेक्ट्रॉनिक कई तरह के कार्यक्रम चलाए गए, लालू प्रसाद यादव से तुलना भी की गई...उम्मीदें... अपेक्षाएं...ख़्वाहिशें...सपने वो सपने जो लोगों ने देखे और वो सपने जो उन्हें दिखाए गए...उद्योगपति, सियासतदां और आम आदमी सभी की आस लगी हुई थी कि इस मंदी के दौर में ममता किस तरह से अपनी 'ममता' दिखाएंगी... आख़िरकार वो दिन आ ही गया 3 जुलाई 2009 जब ममता बनर्जी अपनी मारूति ज़ेन में बैठकर झोला टांगे संसद पहुंची, सादगी और पुराने विचारों के लिए जाने, जाने वाली रेल मंत्री ने बड़ी ही सहजता और सधी शुरुआत के साथ अपना बजट भाषण शुरु किया, बहरहाल बजट तो पेश कर दिया गया और किस तरह से सादे अंदाज़ में संसद पहुंचने वाली ममता बनर्जी ने रेल्वे के आधुनिकीकरण और आम लोगों को जो कुछ भी देने का एलान किया उसके बाद ग़म तो कहीं नज़र फिलहाल नहीं आ रहा है हां प्रतिक्रियाएं अब सामने आना शुरू होगी, ज़ाहिर सी बात है जब क्रिया होती है तो प्रतिक्रिया होगी ही...सबसे पहले प्रतिक्रिया आई पूर्व रेल मंत्री लालू प्रसाद यादव की, लालू ने कहा कि ममता कुंठा से ग्रसित है, बिहार की अनदेखी की गई है, और ये भी कि ममता के इस बजट से रेल को कोई फ़ायदा नहीं होले वाला... ख़ैर बजट आ गया है किसको क्या मिला...? किसको क्या नहीं मिला...? इस पर अब एक बार फिर से बहस ज़रूर होगी क्योंकि हमारे देश में कोई भी 'बात' बिना 'बात' के नहीं कही जाती, यही 'हिंदुस्तान' है और बजट भी 'राजनीति' की छांया से बच जाए ऐसा मुमकिन नहीं... और आने वाले बजट तक ये सब चलता रहेगा बहरहाल मंदी के इस मौसम में मीडिया को भी कुछ तो नहीं, हां बहुत कुछ मिल गया है...