गुरुवार, 11 फ़रवरी 2010

यहां सपने देखना गुनाह है ?

आख़िरकार... वही हुआ जिसका अंदेशा था... मुंबई में जो जंग चल रही है वो जगज़ाहिर है... और इसका फ़ौरी नतीजा निकल आया है मुंबई में फिल्म रिलीज़ नहीं हो रही है... वही मुंबई जहां फिल्में बनती है... जहां से सपना और सफ़र शुरु होता है... जहां हर रात कोई सितारा जगमगाता है, तो कोई सितारा टूट जाता है... कोई सितारा गर्दिश में रहता है तो कोई आसमान में उतनी ही ख़ूबसूरती और रौशनी के साथ चमकता है... ये मुंबई शहर है सपनों का... अपनों का... सितारों से सजी मायानगरी... लेकिन ये बात लगता है कि अब पुरानी और बेमानी हो चली है... ताज़ा हालात को मद्देनज़र रख तो यही कहा जा सकता है... कि ये मायानगरी नहीं गुंडों की नगरी है... यहां सितारो की झिलमिलाहट नहीं यहां तो अंधेरा बसता हैं... यहां सपने तो हैं... लेकिन अपने नहीं... यहां तो वो हैं जो सपनों को तोड़ते हैं... और सवाल अगर अपनो का हो तो अपनों के लिए यहां कोई जगह नहीं है... यहां अपना है कौन ? यहां तो मराठी मानुष हैं, यहां उत्तर भारतीय हैं, यहां शिवसेना है, यहां मनसे है, यहां राजनीतिक पार्टियां हैं... लेकिन यहां कोई अपना नहीं है... वो कहते हैं ना कि दीया तले अंधेरा... यहां भी वही हाल है जितनी चकाचौंध मुंबई में है... उतनी शायद ही देश के किसी कोने में हो...? लेकिन ये भी एक सच्चाई है भले ही कड़वी सही लेकिन यहां अंधेरा भी बहुत है... और उन अंधेरो में इंसान नहीं हैवान बसते है... क्योंकि हैवान ही किसी के सपनों को तोड़ सकता है... इंसान नहीं... अगर माइ नेम इज़ ख़ान औरों की तरह एक सपना है तो क्या सपनों का यही अंजाम होता है...? क्या किसी को सपना देखने का हक़ नहीं...? क्या मुंबई में सपना देखना गुनाह है...? क्या यही है सपनों की नगरी...? क्या यही है मायानगरी...?

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