गुरुवार, 15 जुलाई 2010

रिश्ते...


रिश्ते... कुछ रिश्ते हमें विरासत में मिलते हैं... और कुछ हमें किस्मत से... वो किस्मत जो हम बहुत ज़्यादा तपस्या या इबादत के बाद हमें ईनाम में मिली होती है... उसकी तरफ़ से जिसने हमें पैदा किया... एक बहुत सी नाज़ुक सी डोर से बंधे हुए होते है रिश्ते ज़रा सा हवा का तेज़ झोंका आया और टूटने का डर... ज़रा सा बोझ पड़ा इन पर और ये सहन नहीं कर पाते... लेकिन जितने नाजुक होते हैं रिश्ते उतने ही मज़बूत भी होते हैं... तब जब हम एक-दूसरे पर भरोसा करें... रिश्ते कभी बोझ नहीं होते... उन्हें जिया जाता है ज़िंदगी की तरह, वो सांस लेते हैं, वो महकते हैं, वो चलते हैं ताउम्र साथ-साथ क़दम से क़दम मिलाकर, अगर रिश्ते बोझ बनने लगे तो उन्हें तोड़ देना चाहिए... लेकिन क्या रिश्ते कभी टूटते हैं... शायद हां और शायद नहीं भी, हां इसलिए कि जिस तरह शीशा टूटता है उसी तरह रिश्ते भी टूटते हैं और अगर नहीं तो फिर शीशे के जुड़ने पर भी इसके टूटने के निशां क्यों मौजूद होते हैं... जो टूट गया शायद वो कभी जुड़ भी जाए... लेकिन जो छूटकर बिखर गया हो उसका क्या...? उसे तो सिर्फ समेटा ही जा सकता है और शायद मैं भी कुछ समेटने की कोशिश कर रहा हूं... रिश्ते बनाना बहुत आसान होता है और निभाना उतना ही मुश्किल, बहुत पहले सुना था लेकिन वाकई सच्चाई भी यही है, अगर रिश्ता है तो भरोसा बहुत ज़रूरी है, रिश्ता दो लोगों के बीच मोहब्बत और नफरत का होता है या फिर रिश्ता नहीं है तो वो अजनबी ही होते हैं... लेकिन अजनबी कौन हैं... ये एक बड़ा सवाल है...? जिसके जवाब का मुझे इंतज़ार है...

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